राजा हरिशचंद्र की कहानी

राजा-हरिशचंद्र
राजा हरिशचंद्र (imgae by = youtube )

राजा हरिशचंद्र | Podcast

राजा हरिशचंद्र ऐसे राजा थे जो हमेशा अपनी सत्यवादिता, दान और प्रजावात्सल्य के लिए जाने जाते थे. राजा हरिशचंद्र परमप्रतापी सूर्यवंशी राजा त्रिशंकु के पुत्र थे. त्रिशंकु के बाद राजा हरिशचंद्र अपने पिता के स्थान पर गद्दी पर बैठे.

राजा हरिशचंद्र की पत्नी का नाम तारामती और पुत्र का नाम रोहितसावा था. हरिशचंद्र के राज में प्रजा बहुत सुखी और खुशहाल थी.

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राजा हरिशचंद्र की ख्याति पूरी दुनिया में विख्यात हो गयी और धीरे धीरे उनकी ख्याति स्वर्ग तक भी पहुंच गयी. एक बार भगवान् इंद्रा ने नारद ऋषि से पुछा, “महर्षि आप पूरी दुनिया घूमते रहते है, क्या आप बता सकते है की इस सृष्टि का सबसे महान राजा कौन है?”

नारद मुनि इंद्रा की बातो में छुपे घमंड को समझ गए. उन्होंने बोला की देवराज इंद्रा आप सभी राजाओ से सबसे बलशाली और महान है लेकिन फिर भी अयोध्या के राजा हरिशचंद्र से महान राजा आज के समय में कोई नहीं है.

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महर्षि नारद की बात सुनकर इंद्रा बहुत क्रोधित हो गए, और उन्होंने राजा हरिशचंद्र की परीक्षा लेने का निश्चय किया.

देवराज इंद्रा ने महर्षि विश्वामित्र से राजा हरिशचंद्र की परीक्षा लेने के लिए मदद मांगी, और वो हरिशचंद्र की परीक्षा लेने के लिए राजी हो गए.

महर्षि विश्वामित्र ने अपनी योग विद्या के द्वारा राजा हरिशचंद्र को एक सपना दिखाया, जिसमे वो अपना पूरा राजपाठ ऋषि विश्वामित्र को सौप देते है.

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दूसरे दिन राजा हरिशचंद्र अपने सपने के बारे में भूल कर राजपाठ में व्यस्त हो जाते है. तभी महर्षि विश्वामित्र हरिशचंद्र के दरबार में आते है, और उनसे बोलते है की ये राजपाठ अब मेरा है आप इस महल को खाली कर दे.

हरिशचंद्र विश्वामित्र की बात सुनकर आश्चर्यचकित रह जाते है, और विनम्रतावूर्वक हाँथ जोड़ कर पूछते है, महर्षि मै आपकी बात का मतलब नहीं समझा कृपया समझाने का कष्ट करे.

हरिशचंद्र के पूछने के बाद विश्वामित्र उनको सपने की बात याद दिलाते है. सपने की बात याद आते ही हरिशचंद्र विश्वामित्र से माफ़ी मांगते है और अपने सिंघासन से उतर जाते है, और आदरपूर्वक विश्वामित्र को सिंघासन पर बिठा देते है.

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विश्वामित्र हरिशचंद्र से बोलते है, क्योकि अब इस राज्य का राजा मै हूँ तो तुम अपने सारे राजसी वस्त्र उतार कर रानी और राजकुमार के साथ ये नगर छोड़ कर कही और चले जाओ.

सारे दरबारी राजा हरिशचंद्र को काफी समझाते है की स्वप्न की बात को इतनी गंभीरता से नहीं लेना चाहिए और आप राजपाठ और नगर छोड़ कर ना जाये. लेकिन हरिशचंद्र इस बात के लिए राजी नहीं होते है और बोलते है एक बार दान में देकर रघुकुल वंशी अपनी बात से नहीं मुकरते है, भले ही वो दान स्वप्न में ही क्यों ना दिया गया हो.

जब हरिशचंद्र महल छोड़ कर जाने लगे तब महर्षि विश्वामित्र हरिशचंद्र को रोक कर बोलते है, “राजन तुम्हारे राज्य में साधू और ऋषिओ को दान देने की कोई परंपरा नहीं है क्या?”

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हरिशचंद्र बोलते है महर्षि मैंने तो अपना सबकुछ पहले ही आपको दे दिया है अब मेरे पास बचा ही क्या है? लेकिन फिर भी आप मुझे एक मास का समय दो मै आपको अपनी छमता के अनुसार उचित दान दे दूंगा.

ऐसा बोल कर हरिशचंद्र रानी तारामती और पुत्र रोहितसावा को लेकर महल से निकल जाते है.

कुछ दिनों की यात्रा के बाद हरिशचंद्र एक दूसरे नगर में पहुंचते है, काफी दिनों तक काम ढूंढ़ने के बावजूद उनको कोई काम नहीं मिलता है और महर्षि को दान देने का समय नजदीक आ रहा था, तब रानी तारामती हरिशचंद्र से बोलती है की आप हम सबको बेच दो और जो भी धन मिले उसको महर्षि को देकर दान के बोझ से मुक्त हो जाओ.

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हरिशचंद्र अपने को और रानी तारामती को पुत्र सहित गुलामो के बाज़ार में बेच देता है. रानी तारामती को एक ब्राम्हण पुत्र रोहितसावा सहित खरीद लेता है, और राजा हरिशचंद्र को एक चांडाल (वो इंसान जो शमशान में लाशे जलाता है) खरीद लेता है.

हरिशचंद्र मिले हुये धन को विश्वामित्र को देकर अपने काम पर वापस आ जाते है. हरिशचंद्र चांडाल के साथ मिलकर लाशे जलाने लगते है, और वही रानी तारामती ब्राम्हण के घर का सारा काम करने लगती है.

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एक दिन जब रोहितसावा ब्राम्हण के घर के बाहर खेल रहा था तभी उसको कोई विषैले सांप काट लेता है, जिसकी वजह से उसकी मृत्यु हो जाती है.

रानी तारामती रोते हुए, अपने पुत्र की लाश को जलाने के लिए शमशान पहुंच जाती है. जहा पर उसको हरिशचंद्र बाकी लाशो का दाहसंस्कार करते हुए मिलते है.

अपने पति की हालत देखकर तारामती बहुत दुखी होती है, और वही हरिशचंद्र भी अपने मृत पुत्र को देख कर द्रवित हो जाते है.

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तारामती हरिशचंद्र से पुत्र का दाहसंस्कार करने के लिए बोलती है तो हरिशचंद्र उनसे शमशान घाट के उपयोग करने का किराया मांगते है. उनकी बात सुनकर तारामती बोलती है की उनके पास देने के लिए कुछ भी नहीं है. उनकी बात सुनकर हरिशचंद्र बोलते है की वो अपने मालिक को धोखा नहीं दे सकते है और तारामती को बेटे के दाहसंस्कार के लिए कुछ ना कुछ किराया तो देना ही पड़ेगा.

हरिशचंद्र की बात सुनकर तारामती अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ कर हरिशचंद्र को दे देती है, और बोलती है अभी उनके पास देने के लिए सिर्फ इतना ही है और इसके आलावा वो कुछ भी नहीं दे सकती. 

इसके बाद हरिशचंद्र रोहितसावा को एक चिता पर लिटा देते है, तभी अचानक एक तेज रोशनी होती है, और वहा पर देवराज इंद्रा और महर्षि विश्वामित्र प्रकट होते है.

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इंद्रा के एक इशारे पर रोहितसावा वापस जीवित हो जाते है. हरिशचंद्र और रानी तारामती हैरानी से ये सब देख रहे होते है. तभी इंद्रा हरिशचंद्र से बोलते है, “राजन हैरान मत हो मै और महर्षि विश्वामित्र आपकी परीक्षा ले रहे थे, जिसमे आप पूर्णतया उत्तीर्ण हुये हो.

तभी महर्षि नारद वहा पहुंचते है और इंद्रा से पूछते है, “हे इंद्रा, अब आप बताओ इस ब्रम्हांड में सर्वश्रेस्ट राजा कौन है? जिसपर इंद्रा मुस्कुराते हुए जवाब देते है सिर्फ और सिर्फ हरिशचंद्र।

इसके बाद देवराज इंद्रा और विस्वामित्र हरिशचंद्र का राज्य उनको वापस दे देते है, और पहले से भी ज्यादा समृद्ध होने का आशीर्वाद दे कर अंतर्ध्यान हो जाते है. 

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हरिशचंद्र आने वाले कई सालो तक सुख पूर्वक अयोध्या पर राज करते है और अंत समय में स्वर्ग से उनको लेने के लिए विशेष विमान आता है, जिसपर बैठ कर वो स्वर्ग को प्रस्थान कर जाते है.

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