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कूर्म अवतार की कथा – समुद्र मंथन की अद्भुत गाथा

बहुत समय पहले की बात है, जब देवता और असुर दोनों ही अमृत पाने की इच्छा रखते थे। अमृत वह दिव्य रस था जो पीने से कोई भी अमर हो जाता था। परंतु यह अमृत कहीं छुपा हुआ था समुद्र की गहराइयों में।

एक दिन देवराज इंद्र के पास सभी देवता एकत्रित हुए। “हे देवराज!” वरुण देव ने कहा, “असुर दिन प्रतिदिन शक्तिशाली होते जा रहे हैं। हमें अमृत प्राप्त करना होगा।”

इंद्र देव चिंतित हो गए। वे जानते थे कि अकेले देवताओं के बल पर समुद्र मंथन संभव नहीं था। तब ब्रह्मा जी की सलाह पर सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए।

“हे प्रभु!” इंद्र ने विनम्रता से कहा, “हमें आपकी सहायता चाहिए। समुद्र मंथन के लिए असुरों का सहयोग आवश्यक है, परंतु वे हमारे शत्रु हैं।”

भगवान विष्णु मुस्कराए और बोले, “चिंता न करो। मैं एक उपाय सुझाता हूं। असुरों से संधि करो और कहो कि अमृत में सभी का बराबर हिस्सा होगा। परंतु जब अमृत निकलेगा, तो मैं यह सुनिश्चित करूंगा कि वह केवल देवताओं को ही मिले।”

देवताओं ने भगवान विष्णु की योजना के अनुसार असुरों के पास जाकर संधि का प्रस्ताव रखा। असुरों के राजा बलि ने सोचा कि यह अच्छा अवसर है। उन्होंने संधि स्वीकार कर ली।

अब समुद्र मंथन की तैयारी शुरू हुई। सबसे पहले मंथन के लिए एक विशाल डंडे की आवश्यकता थी। इसके लिए मंदराचल पर्वत को चुना गया, जो अपनी विशालता और मजबूती के लिए प्रसिद्ध था।

परंतु जब देवता और असुर मिलकर मंदराचल पर्वत को उखाड़ने लगे, तो एक बड़ी समस्या आई। पर्वत इतना भारी था कि वह समुद्र में डूबने लगा। सभी परेशान हो गए।

“अब क्या होगा?” असुरों के राजा हिरण्यकशिपु ने चिंता से कहा। “यदि मंदराचल पर्वत डूब गया तो मंथन कैसे होगा?”

तभी आकाश में दिव्य प्रकाश फैला और भगवान विष्णु प्रकट हुए। परंतु इस बार वे अपने सामान्य रूप में नहीं थे। उन्होंने कूर्म अवतार धारण किया था – एक विशाल कछुए का रूप।

यह कछुआ इतना बड़ा था कि उसकी पीठ एक विशाल द्वीप की तरह दिखाई दे रही थी। उसकी आंखें करुणा से भरी थीं और उसके चारों ओर दिव्य तेज था।

“मैं कूर्म अवतार में हूं,” भगवान विष्णु ने घोषणा की। “मैं अपनी पीठ पर मंदराचल पर्वत को स्थिर रखूंगा। अब तुम सब निश्चिंत होकर समुद्र मंथन करो।”

सभी देवता और असुर आश्चर्यचकित रह गए। इतना विशाल और शक्तिशाली कछुआ उन्होंने कभी नहीं देखा था। कूर्म भगवान ने धीरे-धीरे समुद्र में प्रवेश किया और अपनी मजबूत पीठ पर मंदराचल पर्वत को स्थिर कर दिया।

अब मंथन रस्सी की आवश्यकता थी। इसके लिए वासुकि नाग को चुना गया। वासुकि नाग ने प्रसन्नता से अपनी सेवा देने की स्वीकृति दी।

देवताओं ने वासुकि नाग की पूंछ पकड़ी और असुरों ने उसका सिर पकड़ा। इस प्रकार मंदराचल पर्वत को रस्सी की तरह लपेटकर समुद्र मंथन शुरू हुआ।

मंथन शुरू होते ही समुद्र में हलचल मच गई। पानी में बुलबुले उठने लगे और लहरें तेज हो गईं। कूर्म भगवान अपनी पीठ पर पर्वत का भार सहन करते हुए स्थिर खड़े रहे।

पहले समुद्र से हलाहल विष निकला। यह विष इतना भयानक था कि उसकी गंध से ही सभी प्राणी मूर्छित होने लगे। सभी घबरा गए।

“यह विष तो सारे संसार को नष्ट कर देगा!” ब्रह्मा जी ने चिंता से कहा।

तब भगवान शिव आगे आए और बोले, “चिंता न करो। मैं इस विष को पी जाऊंगा।” उन्होंने सारा हलाहल विष पी लिया, परंतु उसे गले से नीचे नहीं उतारा। इससे उनका गला नीला हो गया और वे नीलकंठ कहलाए।

मंथन जारी रहा। कूर्म अवतार में भगवान विष्णु धैर्य से पर्वत को संभाले रहे। उनकी पीठ पर हजारों टन का भार था, परंतु वे बिल्कुल स्थिर थे।

फिर समुद्र से अनेक अद्भुत वस्तुएं निकलीं। पहले निकली कामधेनु गाय, जो सभी इच्छाओं को पूरा करने वाली थी। फिर निकला उच्चैःश्रवा घोड़ा, जो सबसे तेज दौड़ने वाला था।

इसके बाद निकले ऐरावत हाथी, जिसे इंद्र ने अपना वाहन बनाया। फिर निकली कौस्तुभ मणि, जो भगवान विष्णु के गले की शोभा बनी।

समुद्र से लक्ष्मी देवी भी प्रकट हुईं, जो धन और समृद्धि की देवी थीं। उन्होंने भगवान विष्णु को अपना पति चुना।

अंत में, जब मंथन लगभग समाप्त होने को था, तभी समुद्र से धन्वंतरि प्रकट हुए। उनके हाथों में अमृत का कलश था। सभी की आंखें उस कलश पर टिक गईं।

अमृत देखते ही असुर उत्साहित हो गए। वे भूल गए कि उन्होंने देवताओं के साथ संधि की थी। “यह अमृत पहले हमारा है!” असुरों के राजा ने चिल्लाकर कहा।

असुरों ने अमृत कलश छीनने की कोशिश की। देवता और असुर के बीच भयंकर युद्ध छिड़ गया। इस हंगामे में अमृत कलश असुरों के हाथ लग गया।

देवता निराश हो गए। परंतु भगवान विष्णु ने अपनी माया से मोहिनी का रूप धारण किया। मोहिनी एक अत्यंत सुंदर स्त्री थी, जिसे देखकर असुर मोहित हो गए।

“हे सुंदरी!” असुरों के राजा ने कहा, “तुम इतनी सुंदर हो कि हम तुम्हारी बात मानने को तैयार हैं।”

मोहिनी ने मुस्कराते हुए कहा, “यदि तुम चाहो तो मैं इस अमृत को न्याय से बांट सकती हूं। तुम सब एक पंक्ति में बैठ जाओ।”

असुर मोहिनी की सुंदरता में इतने मोहित थे कि उन्होंने तुरंत हां कह दी। देवता और असुर अलग-अलग पंक्तियों में बैठ गए।

मोहिनी ने पहले देवताओं को अमृत पिलाना शुरू किया। असुर धैर्य से अपनी बारी का इंतजार करते रहे। परंतु जब सारा अमृत देवताओं को मिल गया, तो मोहिनी गायब हो गईं।

असुरों को समझ आ गया कि वे धोखा खा गए हैं। वे क्रोधित हो गए और देवताओं पर आक्रमण कर दिया। परंतु अब देवता अमृत पीकर अमर और शक्तिशाली हो चुके थे।

युद्ध में देवताओं की विजय हुई। असुर पराजित होकर पाताल लोक चले गए। समुद्र मंथन सफलतापूर्वक समाप्त हुआ।

अब कूर्म भगवान का कार्य पूरा हो गया था। उन्होंने धीरे-धीरे अपना विशाल रूप छोटा किया और मंदराचल पर्वत को वापस उसकी जगह स्थापित कर दिया।

सभी देवता कूर्म भगवान के सामने नतमस्तक हो गए। “हे प्रभु!” इंद्र ने कृतज्ञता से कहा, “आपके बिना यह समुद्र मंथन संभव नहीं था। आपने अपनी पीठ पर इतना भार सहन किया।”

कूर्म भगवान ने प्रेम से कहा, “यह मेरा कर्तव्य था। जब भी धर्म की रक्षा की आवश्यकता होगी, मैं अवतार लेकर आऊंगा। यह मेरा वचन है।”

इस प्रकार कूर्म अवतार की कथा समाप्त हुई। भगवान विष्णु ने कछुए का रूप धारण करके समुद्र मंथन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

इस कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि धैर्य और स्थिरता से हर कठिन कार्य को पूरा किया जा सकता है। कूर्म भगवान की तरह हमें भी अपने कर्तव्यों का पालन धैर्य से करना चाहिए। समुद्र मंथन की यह गाथा आज भी हमें प्रेरणा देती है कि सच्चाई और धर्म की हमेशा विजय होती है। भगवान विष्णु के कूर्म अवतार की महिमा अपरंपार है।

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