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शांतनु और गंगा की अमर प्रेम कहानी
बहुत समय पहले हस्तिनापुर में एक महान राजा शासन करते थे, जिनका नाम था राजा शांतनु। वे न केवल एक वीर योद्धा थे बल्कि एक न्यायप्रिय और दयालु शासक भी थे। उनकी प्रजा उनसे बहुत प्रेम करती थी।
एक दिन राजा शांतनु शिकार के लिए जंगल गए। जब वे गंगा नदी के किनारे पहुंचे तो उन्होंने देखा कि एक अत्यंत सुंदर स्त्री नदी के तट पर खड़ी है। उसकी सुंदरता देखकर राजा का मन मोहित हो गया। वह स्त्री और कोई नहीं बल्कि स्वयं गंगा देवी थीं।
राजा शांतनु ने गंगा से कहा, “हे सुंदरी! आपकी सुंदरता देखकर मेरा हृदय आपके प्रेम में पड़ गया है। क्या आप मुझसे विवाह करेंगी?”
गंगा देवी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, “राजन! मैं आपसे विवाह करने को तैयार हूं, परंतु मेरी एक शर्त है।”
“कैसी शर्त?” राजा ने उत्सुकता से पूछा.
गंगा बोलीं, “आप मुझसे कभी कोई प्रश्न नहीं करेंगे कि मैं क्या कर रही हूं या क्यों कर रही हूं। यदि आपने एक बार भी मुझसे प्रश्न किया तो मैं आपको छोड़कर चली जाऊंगी।”
प्रेम में अंधे राजा शांतनु ने बिना सोचे-समझे इस शर्त को मान लिया। इस प्रकार शांतनु और गंगा का विवाह हुआ।
विवाह के बाद दोनों बहुत खुशी से रहने लगे। कुछ समय बाद गंगा ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया। परंतु जन्म के तुरंत बाद गंगा उस बच्चे को लेकर नदी की ओर चल दीं और उसे नदी में बहा दिया।
राजा शांतनु यह देखकर बहुत दुखी हुए, परंतु अपनी प्रतिज्ञा के कारण वे कुछ नहीं कह सके। इसी प्रकार गंगा ने सात पुत्रों को जन्म दिया और सभी को नदी में बहा दिया।
जब आठवां पुत्र जन्मा तो राजा शांतनु से रहा नहीं गया। जब गंगा बच्चे को लेकर नदी की ओर जाने लगीं तो राजा ने उन्हें रोकते हुए कहा, “रुको! तुम यह क्या कर रही हो? यह निर्दोष बच्चा तुम्हारा अपना पुत्र है!”
गंगा ने मुड़कर राजा की ओर देखा और कहा, “राजन! आपने अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी है। अब मुझे आपको छोड़कर जाना होगा।”
राजा शांतनु ने विनती करते हुए कहा, “कम से कम मुझे बताओ कि तुमने ऐसा क्यों किया?”
तब गंगा ने अपना परिचय देते हुए कहा, “राजन! मैं गंगा देवी हूं। ये आठों बच्चे वास्तव में अष्ट वसु हैं, जो ऋषि वशिष्ठ के श्राप के कारण पृथ्वी पर जन्म लेने को विवश हुए थे। मैंने उन्हें इस श्राप से मुक्त करने के लिए जन्म के तुरंत बाद अपने साथ ले लिया।”
“परंतु यह आठवां पुत्र प्रभास वसु है,” गंगा ने आगे कहा, “इसे अधिक समय तक पृथ्वी पर रहना होगा। मैं इसे अपने साथ ले जाकर इसकी शिक्षा-दीक्षा कराऊंगी और जब यह योग्य हो जाएगा तो आपके पास वापस भेज दूंगी।”
यह कहकर गंगा अपने पुत्र के साथ अदृश्य हो गईं। राजा शांतनु बहुत दुखी हुए और अपने महल वापस लौट गए।
कई वर्षों बाद एक दिन राजा शांतनु फिर गंगा के तट पर गए। वहां उन्होंने देखा कि एक युवक अपने बाणों से गंगा के प्रवाह को रोक रहा है। राजा यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए।
तभी गंगा देवी प्रकट हुईं और बोलीं, “राजन! यह आपका पुत्र देवव्रत है। मैंने इसे सभी विद्याओं में निपुण बनाया है। अब यह आपके योग्य उत्तराधिकारी बनने के लिए तैयार है।”
राजा शांतनु अपने पुत्र को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने देवव्रत को गले लगाया और अपने साथ हस्तिनापुर ले गए। बाद में यही देवव्रत भीष्म पितामह के नाम से प्रसिद्ध हुए।
शिक्षा: इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि जीवन में कभी-कभी हमें ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है जो हमारी समझ से परे होती हैं। परंतु धैर्य रखकर और विश्वास के साथ आगे बढ़ने से अंततः सब कुछ अच्छा ही होता है। शांतनु और गंगा की कथा हमें यह भी सिखाती है कि प्रेम में विश्वास और त्याग दोनों आवश्यक हैं। यह कहानी भी हमें प्रेम और त्याग के महत्व को समझाती है।












