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शुम्भ-निशुम्भ वध: माँ दुर्गा की वीरता की कहानी
बहुत समय पहले की बात है, जब पृथ्वी पर अधर्म का राज था। दो भयंकर असुर भाई शुम्भ और निशुम्भ ने तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था। ये दोनों असुर इतने शक्तिशाली थे कि देवताओं को भी स्वर्ग छोड़कर भागना पड़ा था।
शुम्भ और निशुम्भ ने कठोर तपस्या करके ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया था कि कोई भी पुरुष उन्हें नहीं मार सकता। इस वरदान के कारण वे निडर होकर अत्याचार करते रहते थे।
“हमारे सामने कोई टिक नहीं सकता!” शुम्भ गर्व से कहता था।
“हाँ भाई, अब तो स्वर्ग भी हमारा है!” निशुम्भ हंसते हुए जवाब देता था।
देवताओं की स्थिति बहुत दयनीय हो गई थी। वे सभी मिलकर हिमालय पर्वत पर गए और माँ जगदम्बा की स्तुति करने लगे। उनकी भक्ति और पुकार सुनकर माँ दुर्गा प्रकट हुईं।
माँ दुर्गा का रूप अत्यंत तेजस्वी और सुंदर था। उनके हाथों में विभिन्न अस्त्र-शस्त्र थे और उनका मुख करुणा से भरा हुआ था।
“हे देवताओ! मैं तुम्हारी पुकार सुन चुकी हूँ। शुम्भ-निशुम्भ का वध करके धर्म की स्थापना करूंगी,” माँ दुर्गा ने आश्वासन दिया।
जब शुम्भ और निशुम्भ को पता चला कि एक सुंदर देवी हिमालय पर्वत पर विराजमान है, तो वे उसे पाने की इच्छा करने लगे। शुम्भ ने अपने दूत धूम्रलोचन को भेजा।
धूम्रलोचन ने माँ दुर्गा के पास जाकर कहा, “हे सुंदरी! मेरे स्वामी शुम्भ तुमसे विवाह करना चाहते हैं। तुम चलकर उनसे मिलो।”
माँ दुर्गा मुस्कराईं और बोलीं, “मैंने प्रण लिया है कि जो मुझे युद्ध में हराएगा, वही मुझसे विवाह कर सकता है।”
धूम्रलोचन क्रोधित हो गया और माँ दुर्गा पर आक्रमण कर दिया। माँ दुर्गा ने एक ही “हुंकार” से धूम्रलोचन को भस्म कर दिया।
जब यह समाचार शुम्भ-निशुम्भ तक पहुंचा, तो वे अत्यंत क्रोधित हुए। निशुम्भ ने अपनी विशाल सेना के साथ चण्ड और मुण्ड नामक दो महान योद्धाओं को भेजा।
युद्ध भूमि में भयंकर लड़ाई छिड़ गई। माँ दुर्गा अकेली ही हजारों असुरों से लड़ रही थीं। जब चण्ड और मुण्ड ने माँ पर आक्रमण किया, तो माँ के मस्तक से माँ काली प्रकट हुईं।
माँ काली ने चण्ड और मुण्ड का वध कर दिया। इसीलिए माँ दुर्गा को चामुण्डा भी कहा जाता है।
अब शुम्भ-निशुम्भ स्वयं युद्ध के लिए आए। उनके साथ रक्तबीज नामक एक भयानक असुर भी था, जिसके खून की एक-एक बूंद से नया असुर पैदा हो जाता था।
युद्ध भूमि में भयंकर संग्राम छिड़ गया। माँ दुर्गा ने पहले रक्तबीज से युद्ध किया। जब माँ काली ने रक्तबीज का खून गिरने से पहले ही पी लिया, तब जाकर रक्तबीज का वध हुआ।
अब बारी थी शुम्भ-निशुम्भ वध की। निशुम्भ पहले आगे आया। माँ दुर्गा और निशुम्भ के बीच भयंकर युद्ध हुआ। माँ दुर्गा ने अपने त्रिशूल से निशुम्भ का वध कर दिया।
अपने भाई की मृत्यु देखकर शुम्भ आग-बबूला हो गया। “तूने मेरे भाई को मार दिया! अब मैं तुझे जीवित नहीं छोड़ूंगा!” शुम्भ चिल्लाया।
शुम्भ और माँ दुर्गा के बीच अंतिम युद्ध शुरू हुआ। यह युद्ध कई दिनों तक चला। शुम्भ अपनी पूरी शक्ति लगाकर लड़ रहा था, लेकिन माँ दुर्गा की शक्ति के सामने वह कमजोर पड़ रहा था।
अंत में माँ दुर्गा ने अपने सुदर्शन चक्र से शुम्भ का सिर काट दिया। इस प्रकार शुम्भ-निशुम्भ वध संपन्न हुआ और धर्म की विजय हुई।
देवताओं ने खुशी से माँ दुर्गा की स्तुति की। “हे माँ! आपने हमारी रक्षा की है। आप सदा हमारी रक्षा करती रहें,” देवताओं ने प्रार्थना की।
माँ दुर्गा ने आशीर्वाद दिया, “जो भी भक्त सच्चे मन से मेरी पूजा करेगा, मैं उसकी सदा रक्षा करूंगी। जब भी धर्म पर संकट आएगा, मैं अवतार लेकर अधर्म का नाश करूंगी।”
इस प्रकार माँ दुर्गा ने शुम्भ-निशुम्भ का वध करके संसार को अधर्म से मुक्त कराया। यह कहानी हमें सिखाती है कि बुराई कितनी भी शक्तिशाली हो, अंत में अच्छाई की ही जीत होती है।
शुम्भ-निशुम्भ वध की यह गाथा आज भी नवरात्रि के दौरान गाई जाती है और माँ दुर्गा की महिमा का गुणगान किया जाता है। माँ दुर्गा हमेशा अपने भक्तों की रक्षा करती हैं और बुराई पर अच्छाई की विजय दिलाती हैं। यह कहानी हमें सिखाती है कि सच्चाई और धर्म की हमेशा जीत होती है।











