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अपराधी कौन? – बेताल पच्चीसी – तेरहवीं कहानी
राजा विक्रमादित्य अपने कंधे पर बेताल को लिए हुए श्मशान से निकल रहे थे। रास्ते में बेताल ने फिर से एक कहानी सुनाने की इच्छा प्रकट की।
“राजन्! सुनिए एक और रोचक कथा।” बेताल ने कहा।
विक्रम चुपचाप सुनने लगे।
“प्राचीन काल में कल्याणपुर नामक एक समृद्ध नगर था।” बेताल ने कहानी आरंभ की। “वहाँ धर्मदास नाम का एक धनी सेठ रहता था। उसके पास अपार संपत्ति थी, किंतु उसका हृदय दया और करुणा से भरा था।”
धर्मदास की एक सुंदर पुत्री थी – सुमित्रा। वह न केवल रूप में अप्रतिम थी, बल्कि गुणों में भी श्रेष्ठ थी। उसकी शिक्षा-दीक्षा उत्तम गुरुकुल में हुई थी।
एक दिन सुमित्रा बगीचे में टहल रही थी। अचानक आकाश से एक सुंदर युवक उतरा। वह विद्याधर था और उसका नाम चंद्रकांत था। दोनों एक-दूसरे को देखकर मोहित हो गए।
“सुंदरी! तुम्हारा रूप देखकर मेरा हृदय चंचल हो उठा है।” चंद्रकांत ने कहा।
“विद्याधर! आपका आगमन अकस्मात् है, किंतु मेरा मन भी आपको देखकर प्रसन्न हो गया है।” सुमित्रा ने लज्जा से कहा।
दोनों में प्रेम हो गया। चंद्रकांत प्रतिदिन आकर सुमित्रा से मिलता। एक दिन उसने विवाह का प्रस्ताव रखा।
“पिता से अनुमति लेकर मैं तुमसे विवाह करूंगा।” चंद्रकांत ने वचन दिया।
किंतु जब धर्मदास को पता चला, तो वह क्रोधित हो गया। “विद्याधरों से हमारा कोई संबंध नहीं हो सकता। मैं अपनी पुत्री का विवाह किसी मनुष्य से ही करूंगा।”
धर्मदास ने तुरंत नगर के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण पुत्र देवदत्त से सुमित्रा की सगाई कर दी। देवदत्त विद्वान और सुशील था, किंतु सुमित्रा का हृदय चंद्रकांत में ही बसा था।
विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। सुमित्रा दुखी रहने लगी। एक रात चंद्रकांत उससे मिला।
“प्रिये! मैं तुम्हें यहाँ से ले जाना चाहता हूँ। क्या तुम मेरे साथ चलोगी?” चंद्रकांत ने पूछा.
“किंतु यह तो पिता के साथ विश्वासघात होगा।” सुमित्रा ने संकोच से कहा।
“प्रेम में सब कुछ न्यायसंगत है।” चंद्रकांत ने समझाया।
अंततः सुमित्रा मान गई। विवाह से एक रात पहले वह चंद्रकांत के साथ भाग गई।
प्रातःकाल जब धर्मदास को पता चला, तो वह अत्यंत दुखी हुआ। देवदत्त भी अपमानित महसूस करने लगा। उसने प्रतिज्ञा की कि वह सुमित्रा को खोजकर लाएगा।
देवदत्त ने अपनी विद्या का प्रयोग करके सुमित्रा का पता लगाया। वह विद्याधर लोक पहुँचा जहाँ चंद्रकांत सुमित्रा के साथ सुखपूर्वक रह रहा था।
देवदत्त ने छुपकर उनकी गतिविधियों पर नज़र रखी। एक दिन उसने देखा कि चंद्रकांत कहीं गया हुआ है और सुमित्रा अकेली है।
देवदत्त ने सुमित्रा के भोजन में विष मिला दिया। जब सुमित्रा ने भोजन किया, तो वह तुरंत मृत्यु को प्राप्त हो गई।
चंद्रकांत वापस आया तो सुमित्रा को मृत पाया। वह अत्यंत दुखी हुआ। उसने अपनी विद्या से जान लिया कि देवदत्त ने यह कार्य किया है।
क्रोध में चंद्रकांत ने देवदत्त को मार डाला। फिर वह स्वयं भी सुमित्रा के शव के पास बैठकर प्राण त्याग दिए।
जब धर्मदास को यह समाचार मिला, तो वह भी शोक में डूब गया और कुछ दिनों बाद उसकी भी मृत्यु हो गई।
कहानी समाप्त करके बेताल ने पूछा: “राजन्! बताइए कि इस कथा में सबसे बड़ा अपराधी कौन है? यदि आप चुप रहे तो आपका सिर फट जाएगा।”
विक्रम ने सोचा और कहा: “बेताल! इस कथा में सबसे बड़ा अपराधी धर्मदास है।”
“क्यों राजन्?” बेताल ने पूछा।
“क्योंकि धर्मदास ने अपनी पुत्री की इच्छा का सम्मान नहीं किया। यदि वह सुमित्रा और चंद्रकांत के प्रेम को स्वीकार कर लेता, तो यह सब नहीं होता। सुमित्रा ने प्रेम में अंधी होकर गलत कदम उठाया, देवदत्त ने क्रोध में हत्या की, और चंद्रकांत ने बदला लिया। किंतु सभी समस्याओं की जड़ धर्मदास की हठधर्मिता थी।”
विक्रम के उत्तर से प्रसन्न होकर बेताल फिर से पेड़ पर जा लटका। विक्रम को पुनः उसे लाना पड़ा।
इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि माता-पिता को अपनी संतान की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। जबरदस्ती और हठधर्मिता से केवल दुख ही मिलता है।












