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सांप और मेंढकों का राजा

बहुत समय पहले की बात है, एक घने जंगल में एक बड़ा तालाब था। उस तालाब में मेंढकों का राजा गंगदत्त अपनी प्रजा के साथ खुशी से रहता था। राजा गंगदत्त बहुत दयालु और न्यायप्रिय था, लेकिन उसका एक बेटा था जिसका नाम था अरुणदत्त।

अरुणदत्त बहुत अहंकारी और क्रूर स्वभाव का था। वह अपने पिता के मंत्रियों और सेवकों के साथ बुरा व्यवहार करता था। एक दिन उसने अपने पिता के सबसे विश्वसनीय मंत्री को बहुत अपमानित किया।

मंत्री बहुत दुखी हुआ और उसने सोचा, “यह राजकुमार इतना अहंकारी है कि इसे सबक सिखाना जरूरी है।” गुस्से में आकर मंत्री ने तालाब छोड़ दिया और जंगल में चला गया।

जंगल में घूमते हुए मंत्री की मुलाकात एक बूढ़े सांप से हुई। सांप का नाम था मंदविष। मंदविष बहुत बूढ़ा हो गया था और अब वह तेजी से शिकार नहीं कर सकता था। भूख के कारण वह बहुत कमजोर हो गया था।

“हे सांप महाराज,” मंत्री ने कहा, “मैं आपको एक ऐसी जगह बता सकता हूं जहां आपको बिना मेहनत के भरपेट भोजन मिल सकता है।”

मंदविष ने उत्सुकता से पूछा, “कहां है वह जगह?”

मंत्री ने कहा, “यहां से थोड़ी दूर एक तालाब है जहां मेंढकों का राजा अपनी प्रजा के साथ रहता है। आप वहां जाकर राजा से कहिए कि आप उसकी सेवा करना चाहते हैं।”

मंदविष को यह बात अजीब लगी। उसने पूछा, “लेकिन मैं तो मेंढकों का शत्रु हूं। वे मुझसे डरेंगे।”

मंत्री ने समझाया, “आप उनसे कहिए कि आपने अपना स्वभाव बदल लिया है और अब आप किसी को नुकसान नहीं पहुंचाना चाहते। आप राजा की सवारी बनना चाहते हैं।”

अगले दिन मंदविष तालाब के किनारे पहुंचा। सभी मेंढक उसे देखकर डर गए और छुपने लगे। लेकिन राजा गंगदत्त ने हिम्मत दिखाई और सांप के पास आया।

“तुम यहां क्यों आए हो?” राजा ने पूछा.

मंदविष ने दुखी आवाज में कहा, “महाराज, मैंने अपने जीवन में बहुत पाप किए हैं। एक ऋषि ने मुझे श्राप दिया है कि अब मैं किसी को हानि नहीं पहुंचा सकूंगा। मैं आपकी सेवा करना चाहता हूं।”

राजा गंगदत्त को सांप पर दया आ गई। उसने कहा, “अच्छी बात है। तुम मेरी सवारी बन सकते हो।”

पहले दिन मंदविष ने राजा को अपनी पीठ पर बिठाकर तालाब में घुमाया। सभी मेंढक यह देखकर हैरान रह गए। राजकुमार अरुणदत्त को भी यह बात बहुत अच्छी लगी और वह भी सांप की सवारी करना चाहता था।

कुछ दिन बाद मंदविष ने राजा से कहा, “महाराज, मुझे भोजन की जरूरत है। मैं बहुत कमजोर हो गया हूं।”

राजा ने पूछा, “तुम क्या खाओगे?”

“बस कुछ छोटे मेंढक दे दीजिए,” मंदविष ने कहा।

राजा ने सोचा कि यह तो स्वाभाविक बात है। उसने अपनी प्रजा के कुछ छोटे मेंढकों को सांप को दे दिया। धीरे-धीरे मंदविष रोज कुछ मेंढकों को खाने लगा।

जब छोटे मेंढक खत्म हो गए, तो मंदविष ने बड़े मेंढकों की मांग की। राजा को चिंता होने लगी, लेकिन वह अपना वादा निभाना चाहता था।

एक दिन मंदविष ने कहा, “महाराज, अब मुझे राजकुमार अरुणदत्त को खाना होगा।”

राजा गंगदत्त घबरा गया। उसने कहा, “नहीं! यह तो मेरा बेटा है!”

लेकिन मंदविष ने कहा, “महाराज, आपने वादा किया था। और वैसे भी, आपका बेटा बहुत अहंकारी है। उसे सबक मिलना चाहिए।”

राजा के पास कोई चारा नहीं था। दुखी मन से उसने अपने बेटे को सांप के हवाले कर दिया। मंदविष ने अरुणदत्त को खा लिया।

अब मंदविष और भी लालची हो गया। उसने एक-एक करके सभी मेंढकों को खा लिया। अंत में केवल राजा गंगदत्त बचा था।

राजा को अब अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने सोचा, “मैंने अपने शत्रु पर भरोसा करके अपनी पूरी प्रजा को खतरे में डाल दिया।”

अंत में मंदविष ने राजा गंगदत्त को भी खा लिया। इस तरह सांप और मेंढकों का राजा की यह कहानी समाप्त हुई।

शिक्षा: इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने शत्रुओं पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं करना चाहिए। दयालुता अच्छी बात है, लेकिन अंधी दयालुता खतरनाक हो सकती है। हमें हमेशा सोच-समझकर फैसला लेना चाहिए और अपनी प्रजा या परिवार की सुरक्षा को प्राथमिकता देनी चाहिए।

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