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पापी कौन ? – बेताल पच्चीसी – पहली कहानी

प्राचीन काल में उज्जैन नगरी में राजा विक्रमादित्य का शासन था। वे न्यायप्रिय, दयालु और वीर थे। एक दिन एक तांत्रिक ने राजा से कहा, “महाराज, यदि आप श्मशान से बेताल को लाकर मुझे दे दें, तो मैं आपको अमर बना दूंगा।”

राजा विक्रम ने स्वीकार कर लिया। अंधेरी रात में वे श्मशान पहुंचे। वहां एक पुराने पीपल के पेड़ पर बेताल लटक रहा था। राजा ने बेताल को पकड़ा और कंधे पर लादकर चल पड़े।

रास्ते में बेताल बोला, “राजन्, मार्ग लंबा है। मैं आपको एक कहानी सुनाता हूं। सुनिए और अंत में प्रश्न का उत्तर दीजिए। यदि जानते हुए भी चुप रहे, तो आपका सिर फट जाएगा।”

राजा ने कहा, “कहो बेताल, मैं सुन रहा हूं।”

बेताल ने कहानी शुरू की: “धर्मपुर नगर में धर्मदत्त नाम का एक धनी सेठ रहता था। उसके पास अपार संपत्ति थी, लेकिन वह बहुत कंजूस था। गरीबों की सहायता तो दूर, वह अपने परिवार पर भी कम खर्च करता था।”

“एक दिन उसके घर एक भूखा ब्राह्मण भिक्षा मांगने आया। धर्मदत्त ने उसे खाली हाथ लौटा दिया। ब्राह्मण ने कहा, ‘सेठजी, भगवान सबको देते हैं, आप भी दान करें।’ लेकिन धर्मदत्त ने उसकी बात नहीं सुनी।”

“उसी समय धर्मदत्त का पुत्र सुधाकर वहां आया। उसने ब्राह्मण की दशा देखी और तुरंत अपनी जेब से सोने की मुद्राएं निकालकर उसे दे दीं। ब्राह्मण खुश होकर आशीर्वाद देकर चला गया।”

“धर्मदत्त को अपने पुत्र का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। उसने सुधाकर को डांटा और कहा, ‘तुम व्यर्थ में पैसा बर्बाद कर रहे हो।’ सुधाकर ने विनम्रता से कहा, ‘पिताजी, दान करना धर्म है। हमारे पास इतना धन है, थोड़ा सा दान करने से क्या हानि?'”

“कुछ दिन बाद नगर में अकाल पड़ा। चारों ओर हाहाकार मच गया। लोग भूख से मरने लगे। धर्मदत्त के पास अनाज के भंडार भरे थे, लेकिन वह उन्हें बेचकर और भी अधिक मुनाफा कमाना चाहता था।”

“सुधाकर से यह देखा नहीं गया। उसने चुपके-चुपके अपने पिता के भंडार खोले और गरीबों में मुफ्त अनाज बांटना शुरू कर दिया। जब धर्मदत्त को पता चला, तो वह बहुत क्रोधित हुआ।”

“एक दिन धर्मदत्त ने सुधाकर को घर से निकाल दिया। सुधाकर ने कहा, ‘पिताजी, मैंने कोई गलत काम नहीं किया। दान करना पाप नहीं, पुण्य है।’ लेकिन धर्मदत्त नहीं माना।”

“सुधाकर घर छोड़कर चला गया। वह दूसरे नगरों में जाकर व्यापार करने लगा। उसकी ईमानदारी और दयालुता के कारण उसका व्यापार फला-फूला। कुछ वर्षों में वह बहुत धनी बन गया।”

“इधर धर्मदत्त का व्यापार घाटे में चलने लगा। उसके कर्मचारी उसे छोड़कर चले गए। धीरे-धीरे उसकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई। वह भिखारी बन गया।”

“एक दिन भूख से व्याकुल धर्मदत्त भीख मांगते हुए उसी नगर पहुंचा जहां सुधाकर रहता था। संयोग से वह सुधाकर के घर के सामने पहुंचा। सुधाकर ने अपने पिता को पहचान लिया।”

“सुधाकर दौड़कर अपने पिता के पास गया और उनके पैर छूए। उसने कहा, ‘पिताजी, आप यहां कैसे?’ धर्मदत्त को बहुत शर्म आई। सुधाकर ने अपने पिता को घर ले जाकर उनकी सेवा की और जीवनभर उनका ख्याल रखा।”

बेताल ने कहानी समाप्त करके पूछा, “राजन्, अब बताइए – इस कहानी में पापी कौन है? धर्मदत्त जिसने कंजूसी की और दान नहीं किया, या सुधाकर जिसने पिता की अवज्ञा करके दान किया?”

राजा विक्रम ने सोचकर उत्तर दिया, “बेताल, इस कहानी में कोई पापी नहीं है। धर्मदत्त ने गलती की थी, लेकिन वह पापी नहीं था। कंजूसी एक दुर्गुण है, पाप नहीं। सुधाकर ने धर्म का पालन किया। पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना गलत है, लेकिन जब वह आज्ञा अधर्म की हो, तो धर्म का पालन करना ही उचित है।”

राजा का उत्तर सुनकर बेताल हंसा और बोला, “वाह राजन्! आपका उत्तर सही है। धर्म सबसे बड़ा है। जब पिता और धर्म में से किसी एक को चुनना पड़े, तो धर्म को चुनना चाहिए।”

यह कहकर बेताल फिर से पेड़ पर जा लटका। राजा विक्रम को फिर से उसे लाना पड़ा। इस प्रकार बेताल की पच्चीसी कहानियों की शुरुआत हुई।

शिक्षा: सच्चा धर्म यही है कि हम दूसरों की सहायता करें। दान करना पुण्य है और कंजूसी करना पाप है। जब धर्म और अधर्म में संघर्ष हो, तो हमेशा धर्म का साथ देना चाहिए।

आप इस कहानी से समझदारी और दान के महत्व को समझ सकते हैं। यदि आप और कहानियाँ पढ़ना चाहते हैं, तो बिल्ली और चूहों की कहानी या नीले गिलहरी की कहानी पर जाएं।

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