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वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की वीरगाथा

बहुत समय पहले की बात है, जब हमारा भारत देश अंग्रेजों के अधीन था। उस समय बुंदेलखंड की धरती पर एक छोटी सी बालिका का जन्म हुआ था, जिसका नाम था मणिकर्णिका। यही बालिका आगे चलकर रानी लक्ष्मीबाई के नाम से प्रसिद्ध हुई और भारत माता की सच्ची वीरांगना बनी।

मणिकर्णिका का जन्म काशी (वाराणसी) में 19 नवंबर 1828 को हुआ था। उसके पिता का नाम मोरोपंत तांबे था, जो पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में काम करते थे। मणिकर्णिका की माता का नाम भागीरथी देवी था। जब मणिकर्णिका केवल चार वर्ष की थी, तो उसकी माता का देहांत हो गया।

छोटी मणिकर्णिका बचपन से ही बहुत साहसी और तेज़ बुद्धि की थी। वह अपने पिता के साथ पेशवा के दरबार में जाती थी। वहाँ सभी उसे प्यार से “मनु” कहकर बुलाते थे। मनु को घुड़सवारी, तलवारबाजी, और युद्ध कला सीखने में बहुत रुचि थी।

“पिताजी, मैं भी योद्धा बनना चाहती हूँ!” मनु ने एक दिन अपने पिता से कहा।

मोरोपंत तांबे मुस्कराए और बोले, “बेटी, तुम्हारे अंदर एक वीर योद्धा की आत्मा है। तुम अवश्य ही महान बनोगी।”

मनु ने बचपन से ही घोड़े की सवारी सीखी। वह तीर-कमान चलाना, तलवार का प्रयोग करना, और मल्लयुद्ध भी सीखती थी। उसके गुरु तात्या टोपे और नाना साहब भी उसकी वीरता से प्रभावित थे।

समय बीतता गया और 1842 में चौदह वर्ष की आयु में मनु का विवाह झाँसी के महाराज गंगाधर राव नेवालकर से हुआ। विवाह के बाद मनु का नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। अब वह झाँसी की रानी बन गई थी।

रानी लक्ष्मीबाई झाँसी की प्रजा से बहुत प्रेम करती थी। वह न्याय प्रिय थी और हमेशा गरीबों की सहायता करती थी। प्रजा भी अपनी रानी से बहुत प्रेम करती थी।

1851 में रानी लक्ष्मीबाई को एक पुत्र की प्राप्ति हुई, जिसका नाम दामोदर राव रखा गया। परंतु दुर्भाग्य से तीन महीने बाद ही बालक की मृत्यु हो गई। इस दुःख से महाराज गंगाधर राव बहुत बीमार पड़ गए।

महाराज की मृत्यु से पहले उन्होंने अपने मित्र के पुत्र आनंद राव को गोद लिया और उसका नाम दामोदर राव रखा। परंतु 1853 में महाराज गंगाधर राव की मृत्यु हो गई।

अब झाँसी पर संकट के बादल मंडराने लगे। अंग्रेज़ों की “हड़प नीति” के अनुसार, यदि किसी राजा की कोई संतान नहीं है तो उसका राज्य अंग्रेज़ सरकार में मिल जाएगा। अंग्रेज़ों ने दत्तक पुत्र दामोदर राव को वैध उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया।

अंग्रेज़ अधिकारी ह्यूरोज़ ने रानी लक्ष्मीबाई के पास संदेश भेजा कि वह झाँसी छोड़कर चली जाए और अंग्रेज़ सरकार से पेंशन ले ले।

रानी लक्ष्मीबाई का जवाब था: “मैं अपनी झाँसी नहीं दूंगी!”

यह सुनकर सभी झाँसी वासी अपनी रानी के साथ खड़े हो गए। रानी ने अपनी सेना तैयार करनी शुरू की। उन्होंने महिलाओं को भी युद्ध की शिक्षा दी। झलकारी बाईमोती बाई, और सुंदर-मुंदर जैसी वीर महिलाएं रानी की सेना में शामिल हुईं।

1857 में भारत में स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत हुई। रानी लक्ष्मीबाई ने भी इस संग्राम में भाग लेने का निश्चय किया। उन्होंने तात्या टोपे और राव साहब के साथ मिलकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध युद्ध की योजना बनाई।

मार्च 1858 में अंग्रेज़ सेनापति सर ह्यूरोज़ ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। झाँसी का किला चारों ओर से घिर गया। रानी लक्ष्मीबाई ने अपने वफादार सैनिकों के साथ वीरता से युद्ध किया।

युद्ध के दौरान रानी अपने पुत्र दामोदर राव को पीठ पर बांधकर लड़ती थी। उनकी तलवार की धार से अंग्रेज़ सैनिक कांप जाते थे। रानी का प्रिय घोड़ा सारंगी भी युद्ध में उनका साथ देता था।

कई दिनों तक युद्ध चलता रहा। रानी की सेना वीरता से लड़ रही थी, परंतु अंग्रेज़ों की संख्या बहुत अधिक थी। अंततः झाँसी का किला टूट गया।

रानी लक्ष्मीबाई अपने पुत्र के साथ किले से निकलकर कालपी पहुंची। वहाँ उन्होंने तात्या टोपे और राव साहब के साथ मिलकर ग्वालियर पर कब्जा कर लिया।

18 जून 1858 का दिन था। ग्वालियर के पास कोटा की सराय में अंग्रेज़ों से भीषण युद्ध हो रहा था। रानी लक्ष्मीबाई अपने घोड़े सारंगी पर सवार होकर वीरता से लड़ रही थी।

अचानक एक नाला आया। सारंगी ने छलांग लगाने की कोशिश की, परंतु वह नाला पार नहीं कर सका। इसी समय अंग्रेज़ सैनिक ह्यूरोज़ ने रानी पर वार किया।

रानी लक्ष्मीबाई गंभीर रूप से घायल हो गई। उन्होंने अपने विश्वासपात्र सैनिक से कहा, “मेरा शरीर अंग्रेज़ों के हाथ न लगे।”

इस प्रकार 18 जून 1858 को केवल 23 वर्ष की आयु में वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। उनकी वीरता देखकर अंग्रेज़ सेनापति ह्यूरोज़ ने भी कहा था, “यहाँ सबसे बहादुर व्यक्ति सो रहा है।”

रानी लक्ष्मीबाई की वीरता की गाथा आज भी हमारे दिलों में जीवित है। उन्होंने सिखाया कि मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर देना चाहिए।

सीख: रानी लक्ष्मीबाई की कहानी हमें सिखाती है कि साहस, दृढ़ता और मातृभूमि के प्रति प्रेम से हम किसी भी कठिनाई का सामना कर सकते हैं। उन्होंने दिखाया कि महिलाएं भी पुरुषों के समान वीर और साहसी हो सकती हैं। आज भी जब हम कोई कठिन काम करते हैं तो रानी लक्ष्मीबाई की वीरता हमें प्रेरणा देती है।

इसीलिए कहा जाता है:

“बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी,<nखूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।”

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