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पुण्य किसका – बेताल पच्चीसी तीसरी कहानी

राजा विक्रमादित्य अपने कंधे पर बेताल को लिए हुए श्मशान की ओर चले जा रहे थे। रास्ते में बेताल ने फिर से कहा, “हे राजन्! मैं तुम्हें एक और कहानी सुनाता हूँ। सुनो और अंत में प्रश्न का उत्तर देना।”

बहुत समय पहले की बात है। कांचीपुरम नगर में राजा चंद्रगुप्त का राज्य था। उस नगर में तीन मित्र रहते थे – धर्मदास, सत्यव्रत और दानवीर। तीनों बचपन से ही एक-दूसरे के सच्चे मित्र थे।

धर्मदास एक धनी व्यापारी था जो हमेशा धर्म के कार्यों में लगा रहता था। वह प्रतिदिन मंदिर जाता, गरीबों को भोजन कराता और साधु-संतों की सेवा करता था। सत्यव्रत एक ब्राह्मण था जो वेद-पुराणों का ज्ञाता था। वह लोगों को धर्म की शिक्षा देता और यज्ञ-हवन कराता था। दानवीर एक राजकुमार था जो अपनी सारी संपत्ति दान में लुटा देता था।

एक दिन तीनों मित्रों ने निश्चय किया कि वे तीर्थयात्रा पर जाएंगे। वे काशी विश्वनाथ के दर्शन करने निकले। रास्ते में एक घना जंगल पड़ता था। जब वे उस जंगल से गुजर रहे थे, तो अचानक डाकुओं ने उन्हें घेर लिया।

“अरे यात्रियो! जो कुछ भी तुम्हारे पास है, सब हमें दे दो, नहीं तो जान से हाथ धोना पड़ेगा!” डाकुओं के सरदार ने गरजकर कहा।

तीनों मित्र निहत्थे थे। उनके पास लड़ने के लिए कोई हथियार नहीं था। डाकुओं ने उनका सारा सामान लूट लिया और उन्हें एक गहरे कुएं में धक्का देकर चले गए।

कुआं बहुत गहरा था। तीनों मित्र घायल हो गए थे। धर्मदास की हालत सबसे खराब थी। वह मरने के कगार पर था। सत्यव्रत और दानवीर भी बुरी तरह घायल थे, लेकिन वे चल-फिर सकते थे।

दानवीर ने कहा, “मित्रो! इस कुएं में पानी है। हम यहाँ कुछ दिन जीवित रह सकते हैं। शायद कोई हमारी सहायता करने आ जाए।”

सत्यव्रत ने धर्मदास की देखभाल करते हुए कहा, “धर्मदास भाई की हालत बहुत खराब है। हमें इसकी जान बचाने का प्रयास करना चाहिए।”

तीन दिन बीत गए। धर्मदास की हालत और भी बिगड़ गई। उसे तेज बुखार था और वह बेहोशी की हालत में था। खाने को कुछ नहीं था।

चौथे दिन दानवीर ने एक कठिन निर्णय लिया। उसने सत्यव्रत से कहा, “मित्र! धर्मदास को बचाने के लिए मैं अपनी जान दे रहा हूँ। तुम मेरा मांस धर्मदास को खिलाकर इसकी जान बचाना।”

यह कहकर दानवीर ने अपने प्राण त्याग दिए। सत्यव्रत रो पड़ा, लेकिन मित्र की जान बचाने के लिए उसने दानवीर के शरीर का कुछ भाग धर्मदास को खिलाया।

धर्मदास को होश आ गया। जब उसे पता चला कि दानवीर ने उसकी जान बचाने के लिए अपना बलिदान दिया है, तो वह फूट-फूटकर रोने लगा।

कुछ दिन बाद एक साधु उस कुएं के पास से गुजरा। उसने तीनों की आवाज सुनी और रस्सी डालकर उन्हें बाहर निकाला। साधु महात्मा एक सिद्ध पुरुष थे।

जब साधु को पूरी कहानी पता चली, तो वे बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने अपनी तपस्या के बल से दानवीर को जीवित कर दिया।

तीनों मित्र खुशी से गले मिले। साधु महात्मा ने कहा, “तुम तीनों ने अपने-अपने तरीके से पुण्य कमाया है। धर्मदास ने जीवनभर धर्म के कार्य किए, सत्यव्रत ने मित्र की सेवा की, और दानवीर ने अपनी जान तक दे दी।”

बेताल ने कहानी समाप्त करके पूछा, “हे राजा विक्रम! बताओ, इन तीनों में से सबसे अधिक पुण्य किसका है?”

राजा विक्रमादित्य ने सोचकर उत्तर दिया, “बेताल! सबसे अधिक पुण्य दानवीर का है। धर्मदास ने अपने धन से पुण्य कमाया, सत्यव्रत ने अपने ज्ञान से सेवा की, लेकिन दानवीर ने अपनी सबसे कीमती चीज – अपनी जान तक दे दी मित्र के लिए। जान से बड़ा कोई दान नहीं होता।”

बेताल प्रसन्न हुआ और बोला, “सही उत्तर दिया है राजन्! लेकिन तुमने बोला है, इसलिए मैं फिर से उड़ जाता हूँ।”

यह कहकर बेताल हवा में उड़ गया और वापस पेड़ पर जा लटका। राजा विक्रमादित्य धैर्य से फिर से उसे लेने चल पड़े।

शिक्षा: सच्ची मित्रता में त्याग और बलिदान की भावना होती है। जो व्यक्ति दूसरों के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है, वही सबसे बड़ा पुण्यात्मा होता है।

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